जानकी रामायण / भाग 4 / लाल दास
चौपाई
मुनिकाँ चिन्तित देखि नरेश। कहलनि तखन सहित आवेश॥
की चिन्तित छी मुनिवर युगल। वृथा बृद्धि को भ्रम में पड़ल॥
नहि मुख अछि बानरक समान। नहि तेसर हमरा हो भान॥
स्वस्थ रहू कन्या जौँ लेब। चिन्ता सौँ नहि फल भल देब॥
श्रीमति काँ नृप कहल बुझाय। बरह दुहु मे जे मन भाय॥
ठाढ़ि भेलिह कर लय जयमाल। पुनि पुनि मुख देखल बिकराल॥
श्रीमति मुनिहि छोड़ि जयमाल। पहिराओल हरि उर ततकाल॥
नारायण कन्या लय संग। चल अयला बैकुण्ठ अभंग॥
हाहाकार ततय भय गेल। के छल छल कय कन्या लेल॥
मन में बाढ़ल बड़ सन्ताप। लगला दुहु मुनि करय विलाप॥
है सुन्दरि गेलहु कोन देश। देलहु नहि किछु वचन भरोस।
हाय करब की बड़ दुख भेल। हरि लम्पट छल सौँ हरि लेल॥
सभ दिन एहि बिधि तकर निवाह। सुन्दरि देखि-देखि करय विवाह॥
कतहु स्वयम्बर हो से जानि। जाय ततय नहि मान गलानि॥
माया कय कन्या लय जाय। से लम्पट नहि कतहु लजाय॥
विद्यमान लक्ष्मी सनि दार। कर तथापि पर नारि विहार॥
लम्पट जनक विचित्र स्वभाव। परतिय पर तकरा बड़ भाव॥
जेहिना हमर कयल सुख नष्ट। तेहिना हमहु करब गय भ्रष्ट॥
हरलनि कतेक नारि कय ब्याज। से सभ प्रकृति छोड़ायब आज॥
तामस सौं मन भय गेल भेर। चलला दुहुजन हरिपुर फर॥
दोहा
छट पट करयित क्रोध सौँ, पढ़यित प्रभु काँ गारि॥
पहुचलाह बैकुण्ठ में, टूटल भक्तिक आरि॥
चौपाई
दुहु मुनिकाँ अवयित हरि देखि। श्रीमति सौँ तँह कहल विशेषि॥
हे सुन्दरि अहँ जाउ नुकाय। हम करयित छी हिनक उपाय॥
से सुनि श्रीमति गेलिह कात। अयला दुहु मुनि कम्पित गात॥
हरि सौँ नारद कहलनि क्रुद्ध। कयल किये अहँ हमर विरुद्ध॥
कपि आकृति हमरा कय देल। श्रीमति काँ अपनहि हरि लेल॥
सब विधि हमरे कयल अनिष्ट। देल दुसह दुःख छलिक उदिष्ट॥
उत्तर कहल कान हरि मूनि। बड़ पीड़ा होइछ ई सूनि॥
एहन कथा मुनि बाज बताह। हम नहि कयल अहँक अधलाह॥
नारद कहल कान लग जाय। बानर मुख की देल बनाय॥
भगवानो कहलनि लगि कान। पर्वत मंगलनि से वरदान॥
अहँ मांगल पर्वत काँ भेल। पर्वत कहल सेहो भय गेल॥
दुहु जन हमर परम छी दास। तेँ ककरहु नहि कयल उदास॥
वृथा करै छी मुनिवर रोष। एहि मे हमर न अछि किछु दोष॥
तखन पुछल पर्वत लगि कान। तनि कहु सैह कहल भगवान॥
दोहा
तखन पुछल नारद हरिहिं, के छल द्विभुज शरीर।
हरलक जे कन्या युगुति, घयने छल धनु तीर॥
चौपाई
कहलनि हरि मायाबी लोक। सैह हरल तकरा के रोक॥
से सुनि दुहु मुनि भेला शान्त। कयलनि हरि सौँ विनय नितान्त॥
एहि में प्रभु अपनेक नहि दोष। अम्बरीष देलक ई धोष।
सैह कयल सभटा ई खेलि। तनिके कृत कन्या चलि गेलि॥
ई कहि अवधपुरी मुनि आबि। शाप देल क्रोधक वश पाबि॥
हमरा दुहकाँ लेलक बजाय। तखन देलह कन्या चोरवाय॥
माया सौँ छल कयलह बेश। अन्धकार में फसह नरेश॥
तमो राशि तहँ उठल अपार। घेरल नृप काँ बड़ अन्धार॥
सुनितहि शाप सुदर्शन चक्र। नृप रक्षे आयल चल वक्र॥
दुहु मुनि पर दौड़ल खिसियाय। देखितहि भय सौँ गेला पड़ाय॥
नारद पर्वत दौड़ल जाथि। चक्र तमोमय नहि पछुआथि॥
फिरला दुहुजन तीनू लोक। ककरहु सौँ नहि चक्रक रोक॥
तखन गेला जगदीशक शरण। त्राहि त्राहि केँ धयलनि चरण॥
कहलनि हे प्रभु दीन दयाल। भोगल कर्मक फल ततकाल॥
अपनेक माया बड़ बलबत्र! कसि बान्धल सभ काँ सर्वत्र॥
होइ जखन अपने अनुकूल। तेहि खन छूट महाभव शूल॥
क्षमा करिय प्रभु निज जन जानि। नहि तौँ प्राणक हयते हानि॥
सुनि विलाप दुहु मुनिक विशेष। कयल निवारण चक्र रमेश॥
दुहु मुनि काँ लेल निकट बजाय। नारायण सभ देल बुझाय॥
शान्त जानि मुनि सौँ हरि कहल। हम अपराध कयल मुनि सहल॥
अम्बरीष कृति नहि अछि दोष। क्षमा करब राखब सन्तोष॥
अहँक नीक हम कयल विचारि। हमही लयलहु श्रीमति नारि॥
से सुनितहि मुनि काँ भेल ताप। पुनि भेल क्रोध देल झट शाप॥
हरलह श्रीमति धय जे रूप। जन्म लैह भय द्विभुज स्वरूप॥
अम्बरीष कुल दशरथ भूप। हयवह तनिके पुत्र अनूप॥
श्रीमति भमि सुता हयतीह। मिथिला में से जन्म लेतीह॥
नृप विदेह तनिकाँ पउताह। तनिकहि सौँ हो तोहर विवाह॥
कयलह राक्षस धर्म्मचरण। राक्षस करतहु भार्य्या हरण॥
जेहिना दुख देलह हे दुष्ट। तेहि विधि तुहु दुख पयवह पुष्ट॥
हमरहि सन दुख नारि वियोग। पड़तहु वन मे करिहह भोग॥
वानर सन मुह देलह बनाय। करतहु बानर ततय सहाय॥
दोहा
नारायण ऋषि शाप सुनि, कयलन्हि सभ स्वीकार।
नारद पर्वत सौँ तखन, कहलन्हि विश्वाधार॥
चौपाई
दशरथ ततय हयब हम ज्येष्ठ। राम नाम होयत अति श्रेष्ठ॥
दक्षिण भुजा भरत गुण धाम। वाम भुजा शत्रुघ्न सुनाम॥
लक्ष्मण अपनहि शेष उदार। एहि विधि हमर हयत अवतार॥
अन्धकार काँ कहल रमेश। जनु तोँ जाह नरेशक देश॥
जखन लेब रामक अवतार। अबिहह करब हमहि स्वीकार॥
ई सुनि चक्र तमो चलि गेल। दुहु मुनि नृप काँ रक्षा भेल॥
नारद पर्वत लज्जित रहल। हरि पद प्रणमि परम पद गहल॥
दोष पड़ल नारिक भेल चाह। करब न हम आजन्म विवाह॥
तप तत्पर दुहु मुनि भेलाह। राजा राज्य करय लगलाह॥
काल पाबि रामो महि आवि। भोगल शापक फल छल भावि॥
तम सौँ लुप्त भेल सम बुद्धि। मायावश विभुआ गत शुद्धि॥
दोहा
माया नहि करवाक थिक, माया सौँ बड़ ताप।
मायावश ईश्वर सहित, भोगल कष्ट कलाप॥
रूपमाला चौपाई
विकल रह मुनि युगल तनिकाँ चक्र सौँ कय त्राण।
मुनिक शाप कलाप सौँ रखि लेल नृपतिक प्राण॥
भक्त वत्सल थिकथि प्रभु तनि भक्त पर बड़ नेह।
भक्त कारण सहल कति दुख घयल मानुष देह॥
एहन प्रभुकाँ भजथि नहि जे परम पामर मन्द।
फसथि दृढ़ भव जाल मे नहि छूट रारुण फन्द॥
कहल भारद्वाज सौँ ऋषि राम जन्म स-हेतु।
लाल गाओल हरि चरित से जगत वारिधि सेतु॥
सोरठा
पढ़थि सुनथि जे लोक,राम जन्म कारण चरित।
हरि निकट नहि रोक, यमराज्क नहि त्राश पुनि॥
की मन मधुकर मन्द, फसि केतकि-वन दुख सहय।
राम चरण अरविन्द, किअयने बसि मधुपान कर॥