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जानकी रामायण / भाग 6 / लाल दास

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सोरठा

सभ सुख मंगल खानि, हरि सेवा हरि भजन सौं।
लाभ करहु सन मानि, लाल आन गति नहि कतहु॥

चौपाई

तदनन्तर श्री हरि हरषाय। सभा सुरंजित कयलनि जाय॥
कौशिक प्रीति महोत्सव गान। हो आरम्भ कहल भगवान॥
तेहिखन विष्णु पाबि निदेश। आयल किन्नर गुणिगण वेश॥
एक कोटि चेटी तेही संग। आइलि सुन्दरि करयित रंग॥
परम मनोहर कहल न जाय। सुर सुन्दरि सभ देखि लजाय॥
तनि सबहिक सुन्दरता देखि। सकल भक्त परि हरल विशेषि॥
विष्णु प्रसन्न होथि तेँ काज। लागल गाबय गुणिक समाज॥
विधि सौं गाबय गान नवीन। बजबय विविध वादय वरवोत॥
नित्य करय सुन्दरि समुदाय। कोकिल स्वर गाबय मन लाय॥
लक्ष्मी सहित विष्णु बैसलाह। कौशिक प्रभूति सुनय लगलाह॥
लक्ष्मीक दासी कोटि हजार। वेत्र पाणि सभ रोकल द्वार॥
गान सुनय सुरगण निज धाम। ऋषि गण मिलि अयला तेहिठाम॥
से सभ लगला करय प्रवेश। गान महोत्सव हो जेहि देश॥
सुरगण काँ दासी समुदाय। वरवस तहँ सौं देल हटाय॥
जे नहि मनि मरथि किछु जोर। तनिकाँ मारय दण्ड कठोर॥
दासी युक्त कथा सभ भनय। प्रभु आगा तोहरा के गनय॥
सुरगण सुनि रहलाह अबाक। ताकथि ठाढ़ फराक फराक॥
तुम्बुरू तखन वजाओल गेल। सादर से तँह आगत भेल॥
जतय दहथि लक्ष्मी भगवान। तहँ आरम्भ भेल शुभ गान॥
विविध ताल युत गान प्रवीन। गाबथि सुन्दर बजबथि वीन॥
नाना राग रागिनी ताल। सभ प्रत्यक्ष भेल तहिकाल॥
तुम्बुरू गान कहल नहि जाय। मोहित भेल सभा समुदाय॥
ककरहु शुद्धि रहल नहि जतय। डूबल रागोदधि मे ततय॥
चित्तक चंचलता सभ गेल। चित्र समान सकल जन भेल॥
मन एकाग्र लक्ष्मी भगवान। कि कहब आनक मनक ठेकान॥
तुम्बुरू कयलनि सभा सुरंज। गाओल सभ गायक गुण पुंज॥
सुनल सभ्य मिलि सुन्दर गान। तखन विसर्जन भेल निदान॥
बड़ प्रसन्न भेला भगवान। दिव्य वसन भूषण देल दान॥
हरि सौं पाबि विविध सनमान। तुम्बुरू बहरयला सविधान॥

सोरठा

कयलनि हरि सत्कार, तुम्बुरू अति आनन्द मन।
भेल गलानि अपार, देखि नारद काँ ततय॥

चौपाई

दासी तखन खोलि देल द्वार। सुर सौं कहल करह सचार॥
ब्रह्मादिक सुर मुनिक समाज। तखन गेला हरि दर्शन काज॥
कयल प्रणाम विबुध अवरोध। नारद बजला कय अति क्रोध॥
तुम्बुरू काँ भेल बड़ सनमान। हम पाओल अपमान महान॥
राखल नहि लक्ष्मी किछु रोच। हमरा सभ काँ जानल पोच॥
लक्ष्मीक दासीगण उद्दण्डि। ऋषि मर्य्यादा न बूझल प्रचण्डि॥
सभकाँ पकड़ि पटकि खिसियाय। देल निकालि हठेँ घिसियाय॥
देखितहि लक्ष्मी रहलि नयन। निरहटि काँ नहि कहलनि बयन॥
सैह कयल ई सभ अपमान। बुझथु सेहो ऋषि विभव निदान॥
अपने लक्ष्मी सुख सौं रहथि। आनक दुख अपमानन बुझथि॥
हयतनि जखनहि कष्टक ज्ञान। तखनहि बुझती दुख अपमान॥
किन्नर पाओल भूषण पाट। सुरमुनि सभक छोड़ाओल बाट॥
ऐश्वर्य्यक अहमिति अधिकाय। हमही से सभ देब छोड़ाय॥
एहि विधि करितहि करितहि क्रोध। नहि रहलनि नारद काँ बोध॥
क्रोध भरेँ मुनि थर - थर काँप। लक्ष्मी माँ दय देलनि शाप॥
दासी लक्ष्मीक मारल मारि। पढ़ल पटा पटि सभकाँ गारि॥
लक्ष्मी से नहि मनमे धयल। दासी काँ न निवारण कयल॥
तेँ लक्ष्मी राक्षस उद्योग। महिमे जनमथु शोणित योग॥
जेहिना दासी पकड़ि पछारि। देल खसाय मारि बड़ मारि॥
लक्ष्मी काँ निशिचरि तेहि भाँति। गंजन करओ क्रोध सौं माति॥
मानुष तन धय वनमें जाय। बेरि बेरि भोगथु दुख समुदाय॥
सुनि नारदक शाप अति घोर। काँपल त्रिभुवन भय गेल शोर॥
तखन भेल मुनि काँ चैतन्य। पछताबय लगला अनमन्य॥
क्रोध विगत नारद अति शान्त। कयल कतेक सन्ताप नितान्त॥
हा हा हमरा थिक धिक्कार। कयल क्रिया हम बड़ अविचार॥
तुम्बुरू थिकथि धन्य कुल दीप। रमा हरिक जे रहथि समीप॥
बड़ विद्वान सिखल भल गान। तेँ पाओल विभुसौँ सन्मान॥
हम विष्णुक नहि भेलहु आप्त। तेँ हमरा दुख दारुण प्राप्त॥
धिक जीवन हम जायब कतय। श्री हरि कयल कृपा नहि जतय॥
ताहू पर हम आनेक आन। कयलहुँ तामस हत भेल ज्ञान॥
तुम्बुरू सिखलनि सुन्दर गान। तेँ प्रसन्न तनि पर भगवान॥
हयत कोना से विद्या प्राप्त। चिन्ता कयलक तनमें व्याप्त॥
विलपथि नारद भूतल परथि। क्षण अधीर क्षण रोदन करथि॥
शाप सुनल लक्ष्मी भगवान। अयला जहँ नारद विज्ञान॥

दोहा

कहल विहसि लक्ष्मी ततय, सुनु नारद मति धीर।
अहँक वचन नहि अन्यथा, करब हरब भव भीर॥

चौपाई

अहँक शाप हमरा स्वीकार। हो परन्तु एहि विधि अवतार॥
निशिचर क्रुद्ध तपोवन जाय। मुनि तन पाँथि रूधिर लय आय॥
से शोणित कंचन घट बीच। राख जतन सै निशिचर नीच॥
तेहिमे हमर तेज समुदाय। से घट महिमे गाड़ल जाय॥
तेहि सौँ ततय हमर अवतार। नहि निशिचर वीर्य्यक व्यापार॥
एहि विधि हमर जन्म मुनि कहिय। नारायणक समीपहि रहिय॥
सैह हयत नारद कहि देल। गानक चिन्ता पुनि भय गेल॥
चिन्तित देखि कहल भगवान। सुनि मुनि हमर वचन परमान॥
जप तप तीरथ पूजन दान। यद्यपि हमर परम प्रिय मान॥
किन्तु तेहन नहि तोहिमे प्रीति। जतबा अछि प्रियकर निज गीति॥
योगी जागि करथि नित ध्यान। तनिक निकट कालेँ प्रस्थान॥
हमर भजन जेकर मन लाय। तनिक निकट हम रही सदाय॥
जे जन हमर सुयश गुण गाब। से सायुज्य मुक्ति नर पाब॥
एतहि तेकर देखू दृष्टान्त। कौशिक गण सहितक सुख शान्त॥
गान प्रसाद कते भेल अमर। अहुँ सौँ तुम्बुरू प्रियकर हमर॥
अहँ यद्यपि देवर्षि प्रमान। नहि प्रिय छी तुम्बुरूक समान॥
जौ अहँकाँ हो गानक भक्ति। देखू जाय उलूकक शक्ति॥
छथि उत्तर मा बस गिरी देश। वसयित गान बन्धु उलुकेश॥
तनिक गान मन सौँ अहँ सुनि। बड़ गायक भय जायब मूनि॥
सुनितहि नारद हरि उपदेश। त्वरित गेला चल उत्तर देश॥
गान बन्धु नारद काँ देखि। कय प्रणाम पूछल सविशेषि॥
कतय कृपा कयलहु मुनिराज। कहू की अछि हमरी स काज॥
नारद गान बन्धु सौं कहल। पूर्वक चरित जते जे रहल॥
गान प्रसंशा कहलनि वेश। अछि जेहिमे हरि काँ आवेश॥
कौशिक गण सहितक सुख मुक्ति। तुम्बुरू आदिक गान सुयुक्ति॥
तनिक मान पुनि निज अपमान। अपन क्रोध हरि वचन विधान॥
से सब चरित विषद कहिदेल। विनय कयल कति गानक लेल॥

दोहा

हरि प्रेरित अयलहु एतय, अछि उपाय नहि आन।
करिय कृपा एहि शिष्य पर, शिक्षित करू हरि गान॥