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जानकी रामायण / भाग 8 / लाल दास

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सोरठा

गाबथि जे हरि गीति, लाल भक्ति दृढ़ नेम सौं।
तनिकामे बड़ प्रीति, श्री नारायण काँ रहय॥
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इन्द्रादिक सभ देव, जहि पद पद्मक भ्रमर छथि।
रे मन से पद सेव, यमक यातना नहि जतय॥
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चौपाई

गान बन्धु पुनि कहल बुझाय। देखिय मुनि ई सुर समुदाय॥
विद्याधर किन्नर गन्धर्व। गान शिषय आयल छथि सर्व॥
तपबल नहि ई विद्या वृद्धि। केवल श्रम सौं होइछ सिद्धि॥
अहुँ श्रम कय जौं सीखब गान। भय जायब मुनि गान निधान॥
लज्जात्यक्त प्रथम भय जाउ। तखन गान विधि सौं अहँगाउ॥
स्त्री संगम विद्या व्यवहार। क्षीक बिवाद गीत आहार॥
जेकर एहिमे लज्जा भाव। कर निज हानि पाथब पछताव॥
मानल नारद आज्ञा तनिक। तत्पर भेला गानक वणिक॥
गान बन्धु पुनि देल बुझाय। मुनि काँ गानक विधि समुदाय॥
वासुदेव काँ कयल प्रणाम। सीखय लगला नारद साम॥
कहलनि गान बन्धु जेहि रीति। तहिना गाबथि नारद गीति॥
कौखन गाबथि कौखन चूक। शासन शिक्षा करथि उलूक॥
एहि विधि कय से यत्न अपार। शिक्षा पौलनि वर्ष हजार॥
अयलनि तखन सुरक प्रमेद। मुनि मन सौं भेल निर्गत खेद॥
गीत विशारद नारद मुनि। बड़ अभिमान कयल मन गूनि॥
हमरा गान भेल परि पूरि। करब आब तुम्बुरू मद चूर॥
जेहिना कयल हमर अपमान। तहिना हरब तनिक हम मान॥
गुरू सौं तखन कहल भय आगु। गान बन्धु गुरू दक्षिणा माँगु॥
माँगल गान बन्धु भल रीति। जौँ मुनि अछि हमरा प्रीति प्रीति॥
देल जाय गुरु दक्षिणा सैह। हम मंगयित छी मुनिवर जैह॥
ब्रह्मा भोगथि जतवा काल। हम गाबी हरि चरित विशाल॥
रहथि प्रसन्न सदा जगदीश। सुनथि सुमुख भय हमरा दीश॥
से मुनि मुदित तखन सुनि कहल। हो वाँछित फल मन जे रहल॥
जखन हयत ई कल्प अतीत। गरुड़ हयब गायब हरि गीत॥
विष्णुक हयत परम सापुज्य। ब्रह्मानन्द सुख लेब भुज्य॥
ई कहि नारद गवयित गान। चलला करयित मन अभिमान॥
भेलहुँ जेहन हम गान प्रवीन। तेहन न क्यो प्राचीन नवीन॥
तुम्बुरू काँ जीतब हम आज। कयने छथि बड़ हमर अकाज॥
जौँ हरि गान हमर सुनताह। तुम्बुरू तह न रहय पौताह॥
मन मन करयित इर्षाविकट। पहुँचलाह तुम्बुरू गृह निकट॥
देखलनि तनि गृह लग अन्धर। धायल नारि पुरुष अछि ढे़र॥
काटल हाथ पैर मुख कान। बाहु नयन ककरहु कुच जान॥
छट पट करयित लाखहु लाख। कोनहु घरान प्राण तन राख॥
नारद पूछल थिकहू के लोक। के देलक अहँ सभ काँ शोक॥
कहल थिकहु हम रागिनी राग। नारद दुख बड़ देल अभाग॥
नित्य अनर्गल गाबथि गीति। देथि कष्ट सभकाँ एहि रीति॥
सुरक प्रमेद बूझल नहि भेल। छिन्न भिन्न सभकाँ कय देल॥
गाबथि सभ दिन विनुहि ठेकान। घायल करथि सभक मुख कान॥
तुम्बुरू जखन गाव निर्दुष्ट। तखन होइत अछि तन परि पुष्ट॥
तनिक डरेँ थर थर मन काँप। जनु गाबी होइछ बड़ ताप॥
गानन आब हमर लेथि प्राण। तुम्बुरू धन्य देथि जिब दान॥

दोहा

देखि परम अद्भुत चरित नारद मन पछताव।
धिक जीवन मन जगतमें तुम्बुरू धन्य कहाव॥

सोरठा

यद्यपि वर्ष हजार, कयल परिश्रम गानमें।
नहि भेल शुद्ध प्रकार, कि करब जायब कतय आब॥

चौपाई

नारद चिन्तित श्वेत द्वीप। पहुचलाह माधवक समीप॥
कहलनि मुनिवर सकल समास। सिखलहु गान भेल उपहाँस॥
अहँक हेतु प्रभु सीखल गान। भेल तकर फल आनेक आन॥
उत्तर कहलनि हरि बड़ गोट। नारद अहँ मन करु जनु छोट॥
अहमित नारद बड़ अधलाह। नीकहुकेँ कैँ दैछ बताह॥
विद्या सिखल अहँ बड़ अल्प। गौरव मन मे कयल अनल्प॥
जनिकाँ सौं अहँ भेलहु मान्य। से गायक छथि बड़ सामान्य॥
यद्यपि गान बन्धु आचार्य्य। किन्तु न छथि तुम्बुरू सभ आर्य्य॥
तुम्बुरू छथि बड़ गान निधान। क्यो नहि छथि मुनि तनिक समान॥
कष्टेँ होयब तनिक समान। किछु दिन धीर धरु करु गान॥
जखन हयत द्वापर अवसन्न। यदु कुलमे होयब उत्पन्न॥
कृष्ण नाम होयत विख्यात। आयब तखन तहाँ अह तात॥
देव दान हम गान यथेष्ट। तखन हयब गायकमे श्रेष्ठ॥
तावत घुमि फिरि सिखयित रहिय। सुर गन्धर्वादिक सौं कहिय॥
ई सुनि नारद कयल प्रणाम। विदा भेला पुनि करयित साम॥
इत उत फिरयित तीनू लोक। गवितहि रहथि हृदय रह शोक॥
एहि प्रकार कति युग गेल वीति। द्वापर प्राप्त भेल भल रीति॥
तखन भेल कृष्णक अवतार। अयला नारद हर्षित द्वार॥
देल कृष्ण काँ सभ मन पाड़ि। बिहसि कृष्ण कहलनि छल छाड़ि॥
स्त्री सभ सौं किछु सिखिय जाय। जाम्बती सैं कहल बुझाय॥
एक वर्ष सँ शिक्षा देल। तखन सत्यभामा गृह गेल॥
ततहु गेल सम्बत्सर बीति। तखन सिखाओल रुक्मिणि गीति॥
एहि विधि श्रम सौँ सीखल नीकि। भेल तथापि न गान सुठीक॥
नारद गावथि बड़ प्रिय मानि। दासी हँसय अपहुना जानि॥
अप्रतिभा नारद काँ भेल। लज्जितमे पुनि हरि तट गेल॥
कयलन्हि कृष्णक विनय अपार। दया करिय हे करुणा गार॥
राग द्वेष मन सौं चल गेल। तखन कृष्ण अपनहि शिख देल॥
हरि प्रभाव रागिनी अयिलीह। नारद काँ सभ प्राप्त भेलीह॥
अयलहि जखन विलक्षण ज्ञान। गायकमे मुनि भेल प्रधान॥
नारद हृदय स्वच्छ भय गेल। ईर्षा अहमित सभ गत भेल॥
ब्रह्मानन्दक सुख मुनि पाव। तुम्बुरू सैं भेल बड़ सद्भाव॥
तखन विष्णु कहलनि सह प्रीति। तुम्बुरू सहित गाउ निज गीति॥
हमर समीप आउ गत शोक। हयत न आब कतहु रोक टोक॥
सुनि नारद बड़ सुखित भेलाह। वीणा लय नाचय लगलाह॥
गाबथि गीति बजाबथि ताल। फिरथि जगत हृदि हर्ष विशाल॥
एहि विधि लक्ष्मी जन्मक हेतु। कहलहुँ हम मुनि धर्म्मक सेतु॥
सुनता जे द्विज ई आख्यान। पओता हरि सा पुज्य प्रमान॥

दोहा

मनसा बाचा कर्म सौं, सुनता लाल प्रवीन।
हरि प्रसाद सुख भोग्य कय, हरिमे हयता लीन॥

श्लोक

कहल कय अपूर्ब्वे जानकी जन्म पूर्ब्वे।
श्रवण सुखद गुह्ये स्नेह सौ कयल वाह्ये॥
कलुष कुल विपक्षे भव्यदा नैक दक्षे।
सुनथि सुचरितार्थ प्राप्त चारू पदार्थे॥

इति श्री जानकी विलास रामायण, मिथिला भाषा
पद्यानुवाद श्री लालदास कृते सम्पूर्णम्॥