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जानकी रामायण / भाग 9 / लाल दास

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अथ लक्ष्मीकाण्ड

चौपाई

कृष्ण कयल अपनहि उपदेश। नारद मुनिक छटल सभ क्लेश॥
आयल उत्तम मुनिकाँ साम। हरषेँ कतहु न हो विश्राम॥
बाढ़ल मुनिकाँ बड़ आवेश। सभखन गावथि साम विशेश॥
चयन पड़य नहि हर्षक लेल। गवितहि फिरथि गीति गुण मेल॥
पाओल रंक यथा सुख राज। तेहि विधि मुदित सतत ऋषिराज॥
मुनि मन बढ़ल महा आनन्द। आधि व्याधि छटल दुख फन्द॥
लक्ष्मी नारायणक समाज। कृपापात्र भेला मुनिराज॥
सुनि सुनि विष्णु तनिक कृत गान। अति प्रसन्न देलनि बरदान॥
गान प्रभाव लेल अपनाय। भक्तशिरोमणि देल बनाय॥
सकल लोककाँ भय गेल ज्ञात। नारद सामग पण्डित ख्यात॥
इन्द्रादिक सभ देव महान। सुनय जाथि नारदकृत गान॥
ब्रह्मलोकमें लागय भीर। सुनथि गान सभ देव सुधीर।
ईश्वर भजन सुनथि मन लाय। प्रेमोदधिमें जाथि समाय॥
नारद मुनिक प्रसंशा साम। करयित सुरगण आवथि धाम॥

दोहा

एक समय हरिपद सुमरि लय कर बीन नवीन।
चलला विष्णुक भवन प्रति नारद गानप्रवीन॥


चौपाई

अयला मुनि बैकुण्ठक द्वार। द्वारी देखि कयल सतकार॥
हरि समीप अयला बिनु रोक। दर्शन पाबि भेला गतशोक॥
विष्णुक पूजा कयल प्रणाम। तखन सुनाओल उत्तम साम॥
हरि प्रसन्न लेल निकट वजाय। साधु साधु कहलनि अपनाय॥
प्रभु प्रसन्न नारद मुनि जानि। लगला कहय अपन मनहानि॥
विभु अपने छी बड़ अनुकूल। तेँ भेल हमर आधि निर्मूल॥
लक्ष्मी कयल जे अपमान। सैह भेल हमरा कल्याण॥
दया कयल ओ नहि अपमान। ईर्षा देल बढ़ाय महान॥
जौं हमरा नहि होइत क्षोभ। बढ़यित कोना गान प्रति लोभ॥
जै लक्ष्मी मोहि देल गलानि। तैं हम पड़लहु एतेक पलानि॥
जावत नहि लागली छल ठेश। छल नहि मन गानक आवेश॥
सभ विद्या में गान विशेश। से हमरा भेल छटल कलेश॥
धन्य धन्य लक्ष्मी जगदम्ब। भेलिह हमर प्राणक अवलम्ब॥
तनिकहि कृपेँ बढ़ल बड़ मान। अपनहुँ विभु कयलहुँ सनमान॥
तुम्बुरू सौं हम ईर्षा कयल। अहँक सभा सहसा पद धयल॥
चेरी कृत हमरा भेल कोध। लक्ष्मी दया कयल सद्वोध॥
जौं ओहि दिन ओ करितथि क्रोप। होइते हमर प्राणधन लोप॥
केहन हमर भेल ज्ञानक हानि। साप देल माताकाँ जानि॥
जगदम्बा कयलनि स्वीकार। तेँ कारण महिमें अवतार॥
हमरेँ कथेँ सहल कति कष्ट। विपिन बास राजस सुख नष्ट॥
कति दुख सहलनि लंका जाय। निशिचर कृत गंजन असहाय॥
हमरा की कहयत हयतीह। ई अपराध कोना सहतीह॥
हा हा बड़ गोट कयल अकाज। हम कृतघ्न नहि होइछ लाज॥
हे विभु कोन बिधि हयतनि तोष। करती कोना क्षमा मोर दोष॥
तकर उपाय कहल प्रभु जाय। दिअ मायाक प्रभाव बुझाय॥
हम मायामोहित सभ काल। नहि अवगत श्रीचरित विशाल॥
हम खसलहु व्यापल अभिमान। हयत कोना भवनिधिसौं त्राण॥
कयल जाय विभु से उपदेश। छटय अविद्याकृत ई क्लेश॥

दोहा

सुनि सादर नारद ववन कहल विष्णु मुसुकाय।
अकथनीय लक्ष्मीचरित सुनिय तत्त्व मन लाय॥

चौपाई

कि कहल नारद कहल न जाय। शक्तिक महिमा अकथ सदाय॥
महालक्ष्मी सभ प्रकृतिक मूल। सैह सृष्टि कयलनि अनुकूल॥
पालन प्रसव प्रलय जे भास। से थिक लक्ष्मिक भ्रकुटि विलास॥
तनिकहि अंसेँ शक्ति प्रधान। पंच प्रकृति जनि नाम बखान॥
लक्ष्मी राधा दुर्गा नाम। सरस्वती सावित्री बाम॥
एहिमें त्रिगुण तीनि प्रधान। सृष्टिक कारण अंस विधान॥
विधि हरिहर तनिके आधार। शक्तिमान सृष्टिक कर्तार॥
सैह महालक्ष्मी निज अंश। पूरित कयल विश्व परसंश॥
तनिके प्रवला माया डोरि। बान्धल विश्वविवश अछि भोरि॥
जे जन पुण्यवान अति भक्त। तनिके गुहि लक्ष्मी अनुरक्त।
धन जन सम्पति पूरित वेश। नहि तनिकाँ स्वप्नहु दुखलेश॥
करथि सैह सवहिक प्रतिपाल। तनिक कृपेँ नहि दुख जंजाल॥

दोहा

लेल महालक्ष्मी तखन कृतयुगमें अवतार।
वेदवती भेल नाम तँह कयल उदित संसार॥

चौपाई

गेला कुशध्वज लय निज धाम। तनिक कृपेँ भेल पूरण काम॥
तनि पुरुषा सावर्णि नरेश। एकांगी शिवभक्त विशेश॥
अपर देवकाँ तुच्छ समान। मानथि केवल शिव भगवान॥
दिनकरकाँ भेल क्रोध महान। शाप देल बुझि बड़ अपमान॥
लक्ष्मी करथु तोहर परित्याग। शिघृहि हो नृप तोहर अभाग॥
लक्ष्मी अयिलिह एतय उदास। तेँ भेल नृपकाँ राजधन नाश॥
रविपर शंकरकाँ भेल क्रोध। मारय चलला जन अनुरोध॥
डरसौं दिनकर गेला पड़ाय। देल शरण हम अभय जनाय॥
शिवकाँ कतेक कहल हम जाय। वचला तखन सूर्य सुख पाय॥
लक्ष्मीकाँ हम कहल बुझाय। तखन भेलिह से शान्त सहाय॥
भ्रष्टराज्य नृप लक्ष्मीहीन। तीनि पुरुष धरि रहला दीन॥
वेदवती अवितहि तेहि देश। कय देल क्षितिमण्डलक नरेश॥
त्रेतामे पुनि तिरहुति आबि। जनक नगर रहलिह सुख पाबि॥
सीता ततय पड़ल भल नाम। कयलनि परिणय तनि सौं राम॥
आवि अयोध्या बन पुनि जाय। कयल विविध कौतुक समुदाय॥
तहँ सौं पुनि लंकामे जाय। मारुतिसौं देल लंक जराय॥
राम सहित कपि सैन्य मंगाय। दशमुख काँ देल सकुल नशाय॥
पुनि अपनहि पश्चिम दिशि जाय। सहस बदन काँ मारल धाय॥
कयलनि कौतुक बड़ विस्तार। दानव मारि हरल महिभार॥
द्वापर युग ब्रजमें अवतार। राधा तनिके नाम उदार॥
कयलनि लीला ललित अपार। से सुनि हो भवसौं निस्तार॥

दोहा

जतय जतय जहँ जाथि से महालक्ष्मि अनुकूल।
हम संगहि देखितहि फिरी तनिक चरित सुखमूल॥

चौपाई

एतय तनिक पूरण अवतार। ऋद्धि सिद्धि सुख जतय अपार॥
तनिकहि सौ वैकुण्ठ प्रकाश। हमरो मन सभखन उल्लास॥
कयलनि क्षीर समुद्र निवास। तेँ हम कयल ततहु सुखवास॥
सासुर वास सदा उपहास। हिनक हेतु नहि मानल त्राश॥
प्रलय समय सभ लोक नशाय। केवल जलमय देखल जाय॥
लक्ष्मी नित्या ततहु सदाय। रहथि हमर हितु शेश बिछाय॥
हो जखना पुनि कल्पक अन्त। सृष्टि करथि शुभ दृष्टि तुरंत॥
सृष्टिक पालन कारन धाय। चंचल गति सर्वत्र सदाय॥
प्रथम कयल सुरपुरमें धाम। तैं भेल इन्द्रक लक्ष्मी नाम॥
मर्त्यभुवनमें कयलनि वास। मर्त्यलक्ष्मी तेँ नाम प्रकाश॥
पुनि पाताल कयल विश्राम। पड़ल नागलक्ष्मी तेँ नाम॥
तीनू लोक सदा घूमि घूमि। पोषण भरण करै छथि जूमि॥
कतहु न हो क्षण भरि विश्राम। तैं कह लोक चंचला नाम॥
राजभवन में रहथि सदाय। सकल प्रजा तेँ पोशल जाय॥
भरण हेतु गृहि गृहि संसार। गृहिलक्ष्मी तेँ नाम उदार॥
पालन धर्म्म हमर जग जानि। तेँ सभकैं पोशथि बिनु हानि॥
धरणी रूप शक्ति आधार। उपजावथि विश्वक आहार॥
विश्वक पालन करथि सदाय। जगदम्बा निज नाम धराय॥
लक्ष्मी कयल जनिक परित्याग। जीवन तनिक मरण सम भाग॥
जेहि विधि शिशुकाँ दूध पिआय। पालन पोषण करयिछ माय॥
तेहिना लक्ष्मी जननि कहाय। विश्वक पालन करथि सहाय॥
शिशुकाँ जौं माता मरि जाय। दैव योग शिशु वचियो जाय॥
लक्ष्मी विनु निश्चय ऋषिराज। नहि ककरी रह जीवन लाज॥
जनिकाँ पर पड़ लक्ष्मिक दृष्टि। बढ़प सकल सम्पत्तिक सृष्टि॥
नहि सपनहु तनिकाँ दुखलेश। पोशथि सेहौ सुखित सभ देश॥
धन जन धर्म बुद्धि बल ज्ञान। सकल तनिक अनुचर परमान॥
जनिकाँ प्रति ओ रहथि सहाय। भुक्ति मुक्ति सुख लाभ सदाय॥