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जानता हूँ, कि मिरे हाथ तो जल जायेंगे / मंजूर हाशमी

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जानता हूँ, कि मिरे हाथ तो जल जायेंगे
राख में दफ़्न जो शोले हैं, निकल जायेंगे

ये जो इक तुम से तअल्लुक़ है, उसे तोड़ना मत
वरना इस लफ़्ज के मा’नी ही बदल जायेंगे

कोई आवाज़, इसी सम्त से फिर आयेगी
हम भी, फिर इसके तअक़्क़ुब<ref>पीछा करना</ref> में निकल जायेंगे

फिर कोई चेहरा, अँधेरे में किरन की सूरत
फैलता जायेगा, और दीप से जल जायेंगे

लौट कर आने से पहले, कभी सोचा भी न था
हम किसी और सफ़र पर भी, निकल जायेंगे

डूबने वालों से, दरिया ने कहा था ‘आओ’
मेरे पानी से, सभी पार निकल जायेंगे

शाहराहें<ref>राजपथ</ref> तो, उसी शहर तलक जाती थीं
फिर भी डर था, कि कहीं और निकल जायेंगे

चन्द क़तरे भी, समन्दर में अगर ज़िन्दा है
बढ़ते-बढ़ते वही,तूफ़ान में ढल जायेंगे

शब्दार्थ
<references/>