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जानते सब हैं बोलता नहीं है कोई भी / डी .एम. मिश्र

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जानते सब हैं बोलता नहीं है कोई भी
आंख सबके है देखता नहीं है कोई भी

कैसे महफूज़ फिर रहेगी ये बस्ती यारो
आग में हाथ डालता नहीं है कोई भी

सिर्फ़ बातें ही लोग ज़ोरदार करते हैं
ग़म ग़रीबों के बांटता नहीं है कोई भी

दूर से देखते हैं लोग पाप होते हुए
यूं मगर खून खौलता नहीं है कोई भी

सब परेशान भेड़ियों के ख़ौफ़ से हैं मगर
सामना करना चाहता नहीं है कोई भी

कैसे दंगा हुआ यह राज़ ही रहा अब तक
उसके बारे में पूछता नहीं है कोई भी

जिसको भी देखिए वो है छुपा मुखौटों में
अस्ल चेहरे में दीखता नहीं है कोई भी