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जानते हैं हम कहाँ जाती है धूप / विजय किशोर मानव
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जानते हैं हम कहां जाती है धूप
है नहीं, सबकी नज़र आती है धूप
जिनके सहनों में हुआ करते हैं जश्न,
उनकी धुन पर नाचती-गाती है धूप
भीड़ से मिलती है पूरे तैश में फिर,
झुग्गियों पर आग बरसाती है धूप
लौटती है घर थकी, लादे अंधेरा,
आदमी की मौत पर मर जाती है धूप
आप ही देखें मिलाकर आंख इससे
मान जाएंगे क़हर ढाती है धूप
डूबती सांसें दिये की कह रही हैं
मेरा जलना सह नहीं पाती है धूप