भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जानने का जी करता है / हरेकृष्ण डेका

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उस दिन तुम धूप सेंक रही थीं,
और मेरी छाँव पड़ रही थी तुम्हारे चेहरे पर।
तुम धूप की ओर ज़रा खिसक गई थीं,
"नारंगी, गुनगुनी धूप मुझे अच्छी लगती है"
कहकर।
तुम्हारी हँसी में धूप की चमक थी,
मेरी छाँव ठंडी थी महज़।
मैंने यूँ दिखाया था जैसे देखा ही नहीं,
पर देखा तो था।
थोड़ा हटकर बैठ गया।
हम हँसते-बतियाते रहे।

समय की लम्बी छाया पड़ चुकी है हमारे बीच,
नहीं जानता तुम कहाँ हो। शायद
तुम्हें भी मेरी ख़बर नहीं।
लेकिन उस दिन कुछ घटित हुआ था
क्षण भर को।
समय की छाया को भेदकर
कभी उस हँसी की चमक
गुनगुनी बनकर उभरती है
अब भी।
तुम धूप में हो, छाँव में हो
जानने का जी करता है।

हरेकृष्ण डेका की कविता : ’जानिबोर म'न जाय’ का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित
और अब पढ़िए मूल असमिया भाषा में यह कविता
জানিবৰ মন যায়




সেইদিনা তুমি লৈ আছিলা ৰ’দৰ উম,
আৰু মোৰ ছাঁ পৰিছিল তোমাৰ মুখত ৷
তুমি ৰ’দৰ ফালে আঁতৰি বহিছিলা আৰু কৈছিলা,
‘সুমথিৰা ৰঙৰ মিঠা ৰ’দ মোৰ ভাল লাগে ৷’
তোমাৰ মুখৰ হাঁহিত আছিল ৰ’দৰ ঝিলিক,
আৰু মোৰ ছাঁ আছিল কেৱল চেঁচা ৷
নুবুজাৰ ভাও ধৰিছিলোঁ ৷
কিন্তু বুজিছিলোঁ ৷
লাহেকৈ অলপ আঁতৰি বহিছিলোঁ ৷ আৰু
হাঁহি-মাতি কথা পাতিছিলোঁ।

সময়ে আমাৰ মাজত দীঘল ছাঁ পেলাইছে ৷
তুমি ক’ত আছা নাজানো ৷ হয়তো
মোৰ খবৰো তুমি নোপোৱা ৷
কিন্তু সেইদিনা ক’ৰৱাত কিবা এটা ঘটিছিল ৷
এখন্তেক ৷
সময়ৰ ছাঁ কুৰুকি কুৰুকি
কেতিয়াবা সেই হাঁহিৰ ঝিলিক
উমাল হৈ ওলাই আহে
এতিয়াও ৷
তুমি ৰ’দত আছানে ছাঁত আছা
জানিবৰ মন যায় ৷