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जानऽ तानीं हम / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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जानऽ तानीं हम,
जानऽ तानीं हे प्रभु,
जानऽतानी जे अनादिकाल से
हमरा के एह जीवन प्रवाह में
अचानक छोड़ के चल देलऽ तूं।
बाकिर हमरा खातिर
ना जानीं जे कतना घर में
कतना राह में
कतना आनंद छोड़ देलऽ।
कै बेर त तू बादल के आड़ से
मधुरे-मधुर मुस्कइलऽ
लाल किरिन का रूप में
कै बेर तहरा चरनन के
दरस-परस कइलीं।
कै बेर अपना लिलार पर
तहरा अँगुरी के
छुअन अनुभव कइलीं।
ना जानीं जे कतना काल आ कतना लोक के
कतना नया-नय रंग क, नया-नय ढंग के
तहार अपरूप रूप,
हमरा आँखन में संचित बा।
केहू नइखे जानत
के कतना जुग के
कतना सुख-दुख
कतना प्रेम आ कतना संगीत
हमरा प्राण में समाइल बा।
तहरा संग-सथ के अनंत यद
आजो हमरा मन प्राण के
अमरित रस बरसन से
पुलकित करेला।