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जाना पे जी निसार हुआ क्या बजा हुआ / 'सिराज' औरंगाबादी
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जाना पे जी निसार हुआ क्या बजा हुआ
उस राह में ग़ुबार हुआ क्या बजा हुआ
मुद्दत से राज़-ए-इश्क़ मिरे पे अयाँ न था
ये भेद आशकार हुआ क्या बजा हुआ
ताज़े खिले हैं दाग़ के गुल दिल के बाग़ में
फिर मौसम-ए-बहार हुआ क्या बजा हुआ
दिल तुझ परी की आग में सीमाब की मिसाल
आख़िर कूँ बे-क़रार हुआ क्या बजा हुआ
किश्वर में दिल के था अमल-ए-सूबादार-ए-ऐश
अब ग़म का इख़्तियार हुआ क्या बजा हुआ
आहू-ए-दिल कि वहशी-ए-सहरा-ए-अक्ल था
तुझ ज़ुल्फ़ का शिकार हुआ क्या बजा हुआ
ओ आफ़्ताब आज मिरे क़त्ल पर ‘सिराज़’
शब-देज़ पर सवार हुआ क्या बजा हुआ