जाना ही है तुम्हें / अज्ञेय
जाना ही है तुम्हें, चले तब जाना,
पर प्रिय! इतनी दया दिखाना, मुझ से मत कुछ कह कर जाना!
सेवक होवे बाध्य कि अनुमति ले कर जावे,
और देवता भी भक्तों के प्रति यह शिष्टाचार दिखावे;
पर तुम, प्राण-सखा तुम! मेरे जीवन-खेलों के चिर-सहचर!
क्यों उस का सुख नष्ट करोगे पहले ही से बिदा माँग कर!
किसी एक क्षण तक अपना वह खेल अनवरत होता जावे;
मैं यह समझी रहूँ कि जैसे भूत युगों में तुम संगी थे, वैसे,
साथ रहेगा आगामी भी युगों-युगों तक।
फिर, क्षण-भर में तुम अदृश्य, मैं अपलक,
पीड़ा-विस्मय में लखती रह जाऊँ, कहाँ रहे तुम; और न उत्तर पाऊँ-
एक थपेड़े में बुझ जावे जीवन-दीपक का आह्लाद-
किन्तु बिदा के क्षण के क्षण-भर बाद!
मेरे जीवन के स्मित! तुम को रो कर बिदा न दूँगी-
आँखों से ओझल होने तक कहती यही रहूँगी :
'आओ प्रियतम! आओ प्रियतम! पवन-तरी है मेरा जीवन,
तुम उस के सौरभ-नाविक बन, दशों दिशा छा जाओ, प्रियतम!'
जाना ही है तुम्हें, चले तब जाना,
पर प्रिय! इतनी दया दिखाना-मुझ से मत कुछ कह कर जाना!
1935