भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाने, तुम कैसी डायन हो / नागार्जुन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जाने, तुम कैसी डायन हो !
अपने ही वाहन को गुप-चुप लील गई हो !
शंका-कातर भक्तजनों के सौ-सौ मृदु उर छील गई हो !
क्या कसूर था बेचारे का ?
नाम ललित था, काम ललित थे
तन-मन-धन श्रद्धा-विगलित थे
आह, तुम्हारे ही चरणों में उसके तो पल-पल अर्पित थे
जादूगर था जुगालियों का, नव कुबेर चवर्ण-चर्वित थे
जाने कैसी उतावली है,
जाने कैसी घबराहट है
दिल के अंदर दुविधाओं की
जाने कैसी टकराहट है
जाने, तुम कैसी डायन हो !

(1975)