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जाने और आने के बीच / ओक्ताविओ पाज़ / उज्ज्वल भट्टाचार्य

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जाने और ठहरने के बीच
लड़खड़ाता है दिन,
अपनी ही पारदर्शिता के प्यार में डूबा हुआ ।
चक्रीय दोपहर अब एक खाड़ी है
जहाँ अपने सन्नाटे में डोलती है दुनिया ।

सब कुछ ज़ाहिर और सब ओझल,
सब कुछ पास और पहुँच से बाहर ।

कागज़, क़िताब, पेंसिल, गिलास,
अपने नामों के साये में पनाह लिए हुए ।

मेरी कनपटी पर चोट करता वक़्त दोहराता है
ख़ून के एक ही जैसे लफ़्ज़ ।

रोशनी के बीच बेतअल्लुक दीवार
गौरो-फ़िक्र का दहशतभरा साया ।

अपने को पाता हूँ एक आँख के बीचोबीच
कोरी नज़र से ख़ुद को परखता हुआ ।

बिखर जाता है लमहा । कोई हलचल नहीं,
मैं ठहरा हूँ और चल पड़ता हूँ :
मैं दरमियानी हूँ ।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य