अपनी पारदर्शिता पर मोहित दिन
झिझकता है जाने और ठहरने के बीच ।
यह गोलाकार दोपहर अब एक घाटी है
जहाँ नि:शब्दता में दुनिया झूलती है ।
सब प्रत्यक्ष है और सब पकड़ से बाहर,
सब पास है और छुआ नहीं जा सकता ।
काग़ज़, क़िताब, पेंसिल, गिलास
अपने-अपने नामों की छाँव में बैठे हैं ।
मेरी धमनियों में धड़कता समय
उसी न बदलने वाले रक्तिम शब्दांश
को दोहराता है ।
रोशनी बना देती है उदासीन दीवार को
प्रतिबिम्बों का एक अलौकिक मंच ।
मैं स्वयं को एक आँख की पुतली में
पाता हूँ, उसकी भावशून्य ताक में
स्वयं को ही देखता हुआ ।
वह पल बिखर जाता है । एकदम स्थिर,
मैं ठहरता हूँ और जाता हूँ : मैं एक विराम हूँ ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : रीनू तलवाड़