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जाने और ठहर जाने के बीच / ओक्ताविओ पाज़
Kavita Kosh से
अपनी पारदर्शिता पर मोहित दिन
झिझकता है
जाने और ठहरने के बीच
यह गोलाकार दोपहर
अब एक घाटी है
जहाँ दुनिया झूलती है नि:शब्दता में
सब प्रत्यक्ष है
और सब पकड़ से बाहर
सब पास है
और छुआ नहीं जा सकता
काग़ज़, क़िताब, पेंसिल, गिलास
अपने-अपने नामों की छाँव में बैठे हैं
मेरी धमनियों में धड़कता समय
उसी न बदलने वाले रक्तिम शब्दांश
को दोहराता है
रोशनी बना देती है उदासीन दीवार को
प्रतिबिम्बों का एक अलौकिक मंच
मैं स्वयं को एक आँख की पुतली में
पाता हूँ, उसकी भावशून्य ताक में
स्वयं को ही देखता हुआ
वह पल बिखर जाता है,
एकदम स्थिर
मैं ठहरता हूँ और जाता हूँ —
मैं एक विराम हूँ
अँग्रेज़ी से अनुवाद : रीनू तलवाड़