भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाने कब संझा आ जाये / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
पता नहीं
कब ऋतु ढल जाये
आओ, सजनी, फागुन हो लें
इधर क्षितिज पर
नया उगा जो सूरज है यह
उसे सहेजें
कल जो होगा
उसे नेह की पाती भेजें
जाने कब
संझा आ जाये
बंद द्वार मन के सब खोलें
याद करो
जब पहली बार
हुए थे हम दोनों ऋतुपाखी
हमने भी मिठास साँसों की
हर पल चाखी
जो बाँचे थे
नेहमन्त्र तब
आओ, सजनी, फिर से बोलें
भीतर
जब फागुन होते हैं
देह तभी होती वृंदावन
भर जाती है साँस-साँस में
मीठी महकन
छोह-मोह का
जो अमरित है
आओ, उससे आँख भिगो लें