भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाने कब से कॉलबैल का बजना बन्द पड़ा है / राजेन्द्र गौतम
Kavita Kosh से
जाने कब से कॉलबैल का
बजना बन्द पड़ा है
पहले भी घर के पिछवाड़े
कोयल कूका करती
कई दिनों से और अधिक यह
कातर-सी रोती है
आँगन में टूटा-बिखरा-सा
उसका छन्द पड़ा है
मोबाइल पर रोज़ कहानी
यों नई सुनाता हूँ
लेकिन बन्द-बन्द-सी जब से
कमरे में पोती है
तब से ही उसका खुल-खुल कर
हंसना मन्द पड़ा है
देखे थे कल स्काइप पर वे
दिल्ली वाले गमले
सुबह चैत की इस नगरी में
ऐसी भी होती है ?
फूल नहीं थे शायद सूखा —
कुछ मकरन्द पड़ा है