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जाने कब से है मिरे कांधों पर / ओम प्रभाकर
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जाने कब से हैं मिरे काँधों पर
हाथ किसके हैं मिरे काँधों पर?
गुज़री फ़स्लों के ज़र्द वर्ग़ो गुल
झड़ते रहते हैं मेरे काँधों पर।
रोज़ो-शब हैं कि दो थके पंछी
कब से बैठे हैं मिरे काँधों पर।
डूबी शामों में वो जुड़वा लम्हे
आ के ठहरे हैं मिरे काँधों पर।
अर्सा गुज़रा, मगर तिरे गेसू
अब भी बिखरे हैं मिरे काँधों पर।
शब्दार्थ :
ज़र्द वर्गो गुल= पीले पत्ते और फूल