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जाने किसकी राह देखतीं, आस भरी बूढ़ी आँखें / वर्षा सिंह

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जाने किसकी राह देखतीं, आस भरी बूढ़ी आँखें ।
इंतज़ार की पीड़ा सहतीं, रात जगी बूढ़ी आँखें ।

दुनिया का दस्तूर निराला, स्वारथ के सब मीत यहाँ
फ़र्क नहीं कर पातीं कुछ भी, नेह पगी बूढ़ी आँखें ।

आते हैं दिन याद पुराने, अच्छे-बुरे, खरे-खोटे,
यादों में डूबी-उतरातीं, बंद-खुली बूढ़ी आँखें ।

मंचित होतीं युवा पटल पर, विस्मयकारी घटनाएँ,
दर्शक मूक बनी रहने को, विवश झुकी बूढ़ी आँखें ।

अनुभव के गहरे सागर में, आशीषों के मोती हैं
जितना चाहो ले लो ‘वर्षा’, बाँट रही बूढ़ी आँखें ।