भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाने कैसी चली थीं यहाँ आँधियाँ / पुरुषोत्तम 'यक़ीन'
Kavita Kosh से
जाने कैसी चली थीं यहाँ आँधियाँ
खो गए रास्ते, बढ़ गई दूरियाँ
ये भी मंज़र दिखाया हमें राम ने
नौ-नौ आँसू बहाती है अँगनाइयाँ
बीते मौसम में ये कैसी बारिश हुई
बह गए प्यार के गाँव और ढानियाँ
होता होगा कहीं जश्न, इस जा से तो अब
मातमी धुन बजाती है शनाइयाँ
धार के साथ क्यूँ आप बहने लगे
याद कीजे सिखाती हैं क्या मछलियाँ
लूट, दंगे, ग़बन, क़त्ल, आतशज़नी
कितने करतब दिखाती हैं ये कुर्सियाँ
एक-दूजे पे रखिए भरोसा 'यक़ीन'
दुश्मनों की तो उड़ जाएँगी धज्जियाँ