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जाने कौन आस-पास होता है / निदा नवाज़

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जब तुम नहीं होती हो
मेरे समक्ष
मैं अपनी डायरी खोलकर
अपनी कविताओं का
घूंघट उठता हूँ।
धीरे-धीरे शब्द
जीवित हो जाते हैं।
अपना आकार
बदल देते हैं।
और तुम्हारे नख-शिख में
ढल जाते हैं।
बालों की बदलियाँ
लहराती हैं।
आँखों के दीये
जल उठते हैं।
होठों के कमल
खिल उठते हैं।
चहरे के चाँद का
उदय होता है।
तुम्हारी सरगोशियाँ
फूटती हैं।
भावनाएं उमड़ती हैं
कहकहे उबलते हैं।
थोड़े समय बाद
दूर शहर की
बनकर-बस्ती से
गोलियों की गूंज
सुमाई देती है
चीखने-चिल्लाने की
आवाज़ें आती हैं
तुम सहम जाती हो
बदलियाँ बिखर जाती हैं
दीये बुझ जाते हैं
कमल मुरझा जाते हैं
चाँद को ग्रहण
लग जाता है
और तुम
विलीन हो जाती हो।
मेरे समक्ष
कविताओं के
अंधे, गूंगे
और शापित शब्द
रह जाते हैं
कठोर और अथरीले.