भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में / शहरयार
Kavita Kosh से
जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में
फंस गया फिर जिस्म के गिरदाब में
तेरा क्या तू तो बरस के खुल गया
मेरा सब कुछ बह गया सैलाब में
मेरी आंखों का भी हिस्सा है बहुत
तेरे इस चेहरे की आबो-ताब में
तुझ में और मुझ में तअल्लुक है वही
है जो रिश्ता साज़ और मिज़राब में
मेरा वादा है कि सारी ज़िन्दगी
तुझ से मैं मिलता रहूंगा ख़्वाब में।