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जाने क्यों ज़िन्दगी भर / अशेष श्रीवास्तव

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जाने क्यों ज़िंदगी भर
यूँ ही भटकते रहते हैं...

छोड़ मंज़िल, पड़ावों में
अकसर अटकते रहते हैं...

चाहते हैं जिनको ज़्यादा
उन्हीं से रूठे रहते हैं...

करते हैं ख़ता ख़ुद ही पर
अनजान बने रहते हैं...

दूसरों की गलतियों पर
भगवान बने रहते हैं...

ग़ैरों में अपनों को खोजते
अपनों को ग़ैर समझते हैं...

ज़िंदगी भर जिसको तरसते
पाने पर बेकद्री करते हैं...

चाहते जिनसे जी भर बोलना
रुबरु उनके ख़ामोश रहते हैं...

चाहिये जहाँ चुपचाप सुनना
ऊटपटाँग वहाँ बोलते रहते हैं...

बूढ़े माँ बाप को बेसहारा छोड़
वृद्धाश्रम का बखान करते हैं...

व्यस्तताओं में फुर्सत तलाशते
बेकारी में काम को ढूँढते रहते हैं...

शहर में एकांत तलाशते फिरते
जंगल में आबादी ढूँढते रहते हैं...

सोचते कुछ हैं बोलते कुछ हैं
करते कुछ, दिखावा कुछ करते हैं...