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जाने मन क्यूँ भाग रहा है / अनीता सिंह
Kavita Kosh से
सोते सोते
जाग रहा है
जाने मन क्यूँ
भाग रहा है।
कलतक थी मद्धम पुरवाई
सुरभित था आँगन अमराई
जबसे बैरी पछुआ आया
कोमल मन किसलय मुरझाया
दिन बदला
रातें भी बदली
कबतक रुककर
फ़ाग रहा है।
बिहँस रही थी क्यारी-क्यारी
महमह थी सारी फुलवारी
रूप भी कबतक साथ निभाता
उन फूलों से कैसा नाता
डाल से छूटी
पंखुरियों में
लिपटा कहाँ
पराग रहा है।
प्यासे बैठे रहे बेचारे
ढेरों पत्थर ताल किनारे
लहर-लहर है, छूकर जाती
लेकिन प्यास नहीं बुझ पाती
याचक था
पत्थर बन बैठा
दाता बना
तड़ाग रहा है।