भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जान अगर ये बादल पाते / विमल राजस्थानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जितना दर्द सँजोये हूँ मैं जान अगर ये बादल पाते
वज्र छिपाये हुए कलेजे तड़क-तड़क कर फट-फट जाते
आँसू के सैलाब उमड़ते
रह-रह कर बिजली बल खाती
उठते जब तूफान, तरकशों
तीरों की धज्जी उड़ जाती

एक फूँक ही काफी होती, नहीं मुरव्वत-माफी होती
मेरा चमन जलाने वाले दीप भभक कर बुझ-बुझ जाते
इतने आँसू बहे कि जितना-
नीर नहीं सातों सागर में
जितनी पीर सँजोये है जग
उतनी इस मन की गागर में

तानों-तिसनों की कंकरियाँ मार रही दुनिया हरजाई
कहीं गगरिया फूट गयी तो तड़पेंगे मौसम मदमाते
ऊदे-हरे घाव इस मन के
दिये जिन्होंने हँस गिन-गिन के
आहों के आँधी-पानी में
उड़ न जायँ वे बनकर तिनके

इसीलिये मैं आह न भरता, उमड़े आँसू रोका करता
इतने बड़े कलेजे वाले ही तो सच्चे कवि कहलाते

-4.9.1974