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जान अगर ये बादल पाते / विमल राजस्थानी
Kavita Kosh से
जितना दर्द सँजोये हूँ मैं जान अगर ये बादल पाते
वज्र छिपाये हुए कलेजे तड़क-तड़क कर फट-फट जाते
आँसू के सैलाब उमड़ते
रह-रह कर बिजली बल खाती
उठते जब तूफान, तरकशों
तीरों की धज्जी उड़ जाती
एक फूँक ही काफी होती, नहीं मुरव्वत-माफी होती
मेरा चमन जलाने वाले दीप भभक कर बुझ-बुझ जाते
इतने आँसू बहे कि जितना-
नीर नहीं सातों सागर में
जितनी पीर सँजोये है जग
उतनी इस मन की गागर में
तानों-तिसनों की कंकरियाँ मार रही दुनिया हरजाई
कहीं गगरिया फूट गयी तो तड़पेंगे मौसम मदमाते
ऊदे-हरे घाव इस मन के
दिये जिन्होंने हँस गिन-गिन के
आहों के आँधी-पानी में
उड़ न जायँ वे बनकर तिनके
इसीलिये मैं आह न भरता, उमड़े आँसू रोका करता
इतने बड़े कलेजे वाले ही तो सच्चे कवि कहलाते
-4.9.1974