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जापान में पतझर / सुरेश ऋतुपर्ण
Kavita Kosh से
निक्को के पर्वत-शिखरों पर
ठहर गई है अक्तूबर की धूप
घाटी की हरियाली पर
बैठी हैं अनगिनत तितलियाँ
उड़ना भूल !
तैल-रंगों सी छायाएँ उनकी
झील में पड़ी हैं छिटकी
आतुर आकाश ने
लेने को जिन्हें समेट
जल की सतह पर फैलाए हैं
बादलों के काग़ज़ सफेद
और फिर
पेड़ों की छाया में
बिछा दिए हैं सूखने के लिए
निक्को के पतझर ने आज
कराया एक नया अहसास
भूल है समझना
वसंत के पास ही है
रंगों का एकाधिकार
पतझर ने भी पाया है
प्रकृति-माँ से
रंगों का उत्तराधिकार !