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जामे-ज़हर भी पी गया अश्कों में ढालकर / डी. एम. मिश्र

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जामे-ज़हर भी पी गया अश्कों में ढालकर
बैठा मेरा मसीहा था ख़ंजर निकालकर

खेती में जो पैदा किया वो बेचना पड़ा
बच्चों को अब खिला रहा कंकड़ उबालकर

जल्लाद मुझ से कह रहा हँस करके दिखाओ
मेरे गले में मूँज का फंदा वो डालकर

आँखों की सफेदी न सियाही ही आयी काम
देखेंगे गुल खिलेगा क्या आँखों को लाल कर

मरने के ख़ौफ़ से ही तू तिल-तिल मरेगा रोज़
कब तक डरेगा जुल्म से खुद से सवाल कर

अपने ही अहंकार में जल जायेगा इक दिन
थूकेगा न इतिहास भी इसका ख़याल कर

इन्सान के कपड़े पहन के आ गया शैतान
बेशक मिलाना हाथ उससे पर सँभालकर