जाम-ओ-सुबू यूँ ही नहीं ठुकराए हुए हैं / रमेश 'कँवल'
जाम-ओ-सुबू1 यूं ही नहीं ठुकराये हुये हैं
उन मस्त निगाहों के पयाम2 आये हुए हैं
लब लाल बदख़्शां3 हैं तो आंखें हैं गिज़ालीं4
यौवन के कलश नाज़ से छलकाये हुये हैं
संदल5 सा बदन सुबह की किरने है बिखेरे
ज़ुल्फ़ों में शबे-मस्त6 को उलझाये हुये हैं
यादों ने तेरी मुझ को दिया इज़्ने-तबस्सुम7
जज़्बात8 मेरी आंखो को छलकाये हुये हैं
हम अपनी तबाही का गिला कर नहीं सकते
अंदेशों की बारात से घबड़ाये हुये हैं
अब आस है तेरी,न तेरा ग़म न तमन्ना
दो फूल हैं नरगिस9 के जो कुम्हलाये हुये हैं
मायूस नहीं तेरे करम से ये गुनहगार
दामन तेरे आगे ही तो फैलाये हुये हैं
मैं सुबह का सूरज हूं मेरा फ़र्दा10 है रौशन
ये अब्रे-सियह11 मुझपे अबस12 छाये हुये हैं
आशिक़ हूं 'कंवल’आम है चर्चा मेरा जग में
क्यों देख के आइना वो शरमाये हुये हैं
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12. व्यर्थ-निरर्थक