जारी तमाशा / पुष्पेन्द्र फाल्गुन
उनींदी आँखें जब नहीं सुन पाती दस्तक
भुरभुरी दीवार में आसान होती है सेंध
छिटक जाती है सांकल अपने बिंब से
तब तक जरूरत का दरवाजा
आगमन-प्रस्थान के औपचारिक द्वार में तब्दील हो चुका होता है.
ले जानेवाले अपने पसंदीदा बक्से के लिए
हटाते हैं बक्सों की परत
उन्हें मालूम है कि किस बक्से के साथ कितना नफा-नुकसान जुड़ा है
आँख खुलने पर भी
लंबा समय लगता है इस यकीन पर कि वही बक्सा चोरी हुआ है
जिसमें सबसे कीमती सामान तह कर रखा गया था.
दिल धक्क है, जुबान सुन्न
दूसरों का तमाशा बनाने की हमारी आदत
हमारी देहरी पर भी खींच लाती है तमाशबीनों की भीड़
हर तमाशाई के पास होती है सालाहियत की शहनाई
और पहचान कि किसने आपका बक्सा चोरी किया है.
आप चाहते हैं कि भीड़ सहानुभूति जताए
जो हुआ उसे भूल जाने की बात कहे
दिलासा दे कि ईश्वर की शायद यही मर्जी थी
या कहे कि गीता में भगवान ने कहा है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है
और यह कहना न भूले कि इससे आपकी प्रतिष्ठा पर नहीं आएगी कोई आंच
लेकिन भीड़तंत्र आपकी तमाम कमजोरियों से वाकिफ है
पुचकारने, फुसलाने, मनाने, समझाने के लिए नहीं इकट्ठा है भीड़
उसकी उंगली के हर इशारे पर आप हैं
और खीझकर कहना ही होता है आपको
धत्त तेरे की ईश्वर की, धत्त तेरे की भगवान की!
हर घटना के लिए बड़ों के पास चश्मदीद-ए-चश्मा है
कौतुहल के आईने पर छोटों का हक है
आपको मिलते हैं कई-कई नुस्खे
दावा है कि इनमें से किसी से भी ढूंढ़ सकते हैं आप
अपना कीमती सामानों वाला बक्सा.
कैसी विडंबना!
हर नुस्खा ले जाता है नजूमी के पास
जिसके पास तैयार है नाम, वेशभूषा, आवाज, चेहरा-मोहरा
कि उनमें से चुन लीजिए आप अपने मतलब का चोर.
एक बक्सा जाते-जाते आपको दे जाता है
जीवन भर की कहानी
और आपके चाहने वालों को प्रगट करने के लिए चिरंतन अफसोस.
जो नुस्खों पर अमल नहीं करते
उन्हें करनी होती है आजीवन परिक्रमा
पुलिस, वकील, अदालत और रिश्वत की