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जाली में से भीतर आती हुई चन्‍द्रमा की / कालिदास

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पादानिन्‍दोरमृतशिशिराञ्जालमार्गप्रविष्‍टान्
     पूर्वप्रीत्‍या गतमभिमुखं संनिवृत्‍तं तथैव।
चक्षु: खेदात्‍सलिलगुरुभि: पक्ष्‍मभिश्‍छादयन्‍तीं
     साभ्रे ह्नीव स्थलकमलिनीं न प्रबुद्धां सुप्‍ताम्।।

जाली में से भीतर आती हुई चन्‍द्रमा की
किरणों को परिचित स्‍नेह से देखने के लिए
उसके नेत्र बढ़ते हैं, पर तत्‍काल लौट आते
हैं। तब वह उन्‍हें आँसुओं से भरी हुई दूभर
पलकों से ऐसे ढक लेती हैं, जैसे धूप में
खिलनेवाली भू-कमलिनी मेह-बूँदी के दिन
न पूरी तरह खिल सकती है, न कुम्‍हलाती
ही है।