भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाली में से भीतर आती हुई चन्‍द्रमा की / कालिदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: कालिदास  » संग्रह: मेघदूत
»  जाली में से भीतर आती हुई चन्‍द्रमा की

पादानिन्‍दोरमृतशिशिराञ्जालमार्गप्रविष्‍टान्
     पूर्वप्रीत्‍या गतमभिमुखं संनिवृत्‍तं तथैव।
चक्षु: खेदात्‍सलिलगुरुभि: पक्ष्‍मभिश्‍छादयन्‍तीं
     साभ्रे ह्नीव स्थलकमलिनीं न प्रबुद्धां सुप्‍ताम्।।

जाली में से भीतर आती हुई चन्‍द्रमा की
किरणों को परिचित स्‍नेह से देखने के लिए
उसके नेत्र बढ़ते हैं, पर तत्‍काल लौट आते
हैं। तब वह उन्‍हें आँसुओं से भरी हुई दूभर
पलकों से ऐसे ढक लेती हैं, जैसे धूप में
खिलनेवाली भू-कमलिनी मेह-बूँदी के दिन
न पूरी तरह खिल सकती है, न कुम्‍हलाती
ही है।