जाल / पद्मा सचदेव
सुनो
सुनो तो सही
मेरे आसपास बँधा हुआ ये जाल मत तोड़ो
मैंने सारी उम्र इसमें से निकलने का यत्न किया है
इससे बँधा हुआ काँटा-काँटा मेरा परिचित है
पर ये सारे हीं काँटे मरते देखते-देखते उगे हैं
रात को सोने से पहले
मैं इनके बालों को हाथो से सहलाकर सोयी थी
और सुबह उठते हीं
इनके वो मुँह तीखे हो गये हैं
तो दोष किसका है दोस्त!
सुनो,
मिन्नत करती हूँ सुनो तो सही
मुझे फूलों की ज़रूरत नहीं है
उनके रंगों को देखकर जो ख़ुश होती
वो नज़र नहीं रही
इस जाल की ख़ुशबू मेरी साँसों में बंध गयी है
मैं फूलों को लेकर क्या करूँगी
सुनो,
मैं तुम्हारी मिन्नत करती हूँ
सुनो, मेरा जाल मत काटो
मुझे परबस रहने दो
मुझे इस जाल के भीतर
बड़ा चैन मिलता है मित्तर!
इसमें से निकलने के जितने हीले
मुझे इसके बीच रहकर सूझते हैं
इसके बाहर वो कहाँ
उम्र की यह कठिन बेला
मुझे काटने दो इस जाल के भीतर दबकर
चलो, अब दूर हो जाओ
जाल के काँटों के बहुत-से मुँह
मेरे कलेजे में खुभे हुए हैं
जाल काटते हीं अगर ये मुझमें टूट गये
तो मत पूछो क्या होगा
बुजुर्ग कहते हैं---
टूटे हुए काँटों का बड़ा दर्द होता है.