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जाल / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
जाल केवल उलझाव नहीं है
वह समेट लेता है सब कुछ और बाँट देता है फिसल गये सुखों से रिक्त हथेलियों को
जाल ले ही लेता है लहरों से कुछ् न कुछ समँदर के वक्ष पर शाँत फैला जाल
वो फैला नहीं होगा तो समेटेगा कैसे? जाल भी तो परवश है फैलाए जाने और
समेट लिये जाने के बीच
कोई यूँ ही तो नहीं देता कुछ कहीं न कहीं
बनी रहती है आस समेटने और देने के बीच