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जाहिल आक़िल मूरख दाना गोरा भूरा काला भी / कांतिमोहन 'सोज़'
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जाहिल आक़िल मूरख दाना गोरा भूरा काला भी।
पीनेवाला भी हँसता था ज़ह्र पिलानेवाला भी।।
अजब था मंज़र लिए घड़ा हर शख़्स नदी पर बैठा था
आग बुझानेवाला भी और आग लगानेवाला भी।
लड़की थी अस्मत के अलावा सब कुछ सही सलामत था
बोतल चाकू लहू वहीं पर बैठा था रखवाला भी।
आपसदारी भाईचारा सब के सब नाक़िस ठहरे
देखो कैसा जीतके आया इन्हें मिटानेवाला भी।
उसे सताना उसे रुलाना किसके बस का रोग है पर
जेल में क्यूँ डाला जाता है हमें हँसानेवाला भी।
अब तो उनसे नाता जोड़ो कर दो उनपर जाँ क़ुर्बान
अरबों के मालिक हैं अब तो मस्जिद और शिवाला भी।
झूमके निकलो घूमके निकलो चूमके निकलो सोज़ यहाँ
भगवा पहनो डण्ड कमण्डल रुद्दराक्ष की माला भी।।