भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जाहि देखि, चाहत नहीं / हनुमानप्रसाद पोद्दार
Kavita Kosh से
(राग माँड़-ताल कहरवा)
जाहि देखि, चाहत नहीं कछु देखन मन मोर।
बसै सदा मोरे दृगनि सोई नंद-किसोर॥
तन-मन-सब लिपटे रहैं, नित प्रियतम के अंग।
भुक्ति-मुक्ति की कल्पना करै न यह सुख-भंग॥
भूलि जाय सुधि जगत की, भूलै घर की बात।
हिय-सौं-हिय लागौ रहै, बिनु बाधा दिन-रात॥
इंद्रिय, मन, बुधि, आतमा बनैं स्याम के धाम।
सब में सदा बसौ रहै प्रियतम मधुर ललाम॥