भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जा सकते हैं, लेकिन.... / नीरेन्द्रनाथ चक्रवर्ती
Kavita Kosh से
नाराज़ होकर दूर अवश्य ही जाया जा सकता है
लेकिन कितनी दूर?
नदी दिखाई नहीं दे रही, न पेड़, न लताएँ
अकारण ही भयानक प्यास लग रही है
आँखों के सामने, फिर भी मन की ओट में
रास्ता भी ख़त्म हुआ जाता है।
बस एक ही चिन्ता है; वही एकमात्र चिन्ता
अब घूम-घूम कर लौट रही है।
तो फिर नाराज़ होकर कितनी दूर जाओगे?
नाराज़ होकर एक बार दूर गए थे
लेकिन कितनी दूर?
तब कुछ भी दिखाई नहीं देता था आँखों को
न नदी, न बादल, न पहाड़
केवल कण्ठ-भर प्यास की शून्य छवि देखते-देखते
उदास लौटे थे रास्तों पर
आँखों के सामने ही, फिर भी मन की ओट में
ख़त्म हो जाता है जो रास्ता।
बस एक ही छवि है; वही एकमात्र छवि
तब घूम-घूम कर लौटती थी
तो फिर नाराज़ होकर कितनी दूर जाओगे?
मूल बांग्ला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी