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जिंदगी! है किसी दीवार का साया तू भी / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
दश्ते-इमरोज* में अक्से-शबे-रफ़्ता* तू भी
मैं भी गुज़रे हुए लम्हों का मुसन्ना* तू भी
दोनों एक झूठ का इज़हार है, तू भी, मैं भी
मैं भी सच्चा हूँ, बज़ाहिर नहीं झूठा तू भी
मुझको पत्थर की तरह छोड़ के पाताल में अब
जिंदगी! बन गई बहता हुआ दरिया तू भी
बीती यादें, न यहाँ टूटते रिश्तों की चुभन
गाँव को छोड़ के अब शहर में आ जा तू भी
ज़ाविया* धूप के हमराह बदलता है तेरा
जिंदगी! है किसी दीवार का साया तू भी
1- दश्ते-इमरोज--वर्तमान के वन में
2- अक्से-शबे-रफ़्ता--गुज़री हुई रात की परछाई
3- मुसन्ना--प्रतिलिपि
4- ज़ाविया--कोण