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जिंदगी अंत तलक साथ निभाने से रही / रंजना वर्मा

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जिंदगी अंत तलक साथ निभाने से रही
फिर शिकायत क्यूँ हमें सारे ज़माने से रही

तिश्निगी बढ़ती ही जाती है नहीं हल उस का
मौज सागर की तो अब प्यास बुझाने से रही

तीरगी ऐसी कि सूझे नहीं साया भी कोई
तेज तूफ़ान में अब रौशनी आने से रही

हो के नाराज़ मसर्रत भी है मुँह फेर गयी
रूठ के बैठी है अब हम को बुलाने से रही

मुश्किलों से थे मिले दिन सुकून के थोड़े
अब बिना बात जीस्त उन को गंवाने से रही

चार दिन के लिये आयी थीं बहारें भी इधर
पतझड़ों को ये हवा बात बताने से रही

रात आधी से अधिक बीत रही है यूँ ही
लोरियाँ गा के परी हम को सुलाने से रही