भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिंदगी की रेत पर तू / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'
Kavita Kosh से
जिंदगी की रेत पर तू, छोड़ आज निशान कुछ।
कौन जाने ये हवाएँ,
कब बदल दें रुख़ यहाँ।
उड़ चले अस्तित्व सारा,
बोध हमको है कहाँ।
आ करें अब ख्वाहिशों का, हम यहाँ अवसान कुछ।
चल रहे कब से सतत हम,
फ़र्ज़ खुद पर लाद कर।
कह रही मंजिल, इरादे,
अब ज़रा फौलाद कर।
शूल चुनकर राह के तू, कर डगर आसान कुछ।
हो थकन से चूर लेकिन,
मंजिलें भी पास हैं।
रह गए पीछे उन्हें अब,
बस तुम्हीं से आस है।
डर न पैदा आँधियाँ गर, कर रहीं व्यवधान कुछ।