भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिंदगी को समझने में देरी हुई / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
ज़िंदगी को समझने में देरी हुई
वक़्त के साथ चलने में देरी हुई
मैं लकीरों के पीछे भटकता रहा
अपनी क़िस्मत बदलने में देरी हुई
साधु-संतो के सुनता रहा प्रवचन
उस नियंता से मिलने में देरी हुई
मेरे सीने में वर्षों से जो दफ़्न है
क्यों वही बात कहने में देरी हुई
ये गृहस्थी भी जंजाल है दोस्तो
इससे बाहर निकलने में देरी हुई
वो अँधेरा मगर फैलता ही गया
इक दिया मुझको रखने में देरी हुई
पाँव जिसके हैं वो लड़खड़ायेगा ही
मुझको लेकिन सँभलने में देरी हुई