जिंदगी से डरते हो ? / नून मीम राशिद
ज़िंदगी से डरते हो ?
ज़िंदगी तो तुम भी हो ज़िंदगी तो हम भी हैं !
आदमी से डरते हो ?
आदमी तो तुम भी हो आदमी तो हम भी हैं !
आदमी ज़ुबाँ भी है आदमी बयाँ भी है
उस से तुम नहीं डरते !
हर्फ़ और मआनी के रिश्ता-हा-ए-आहन से आदमी हैं वाबस्ता
आदमी के दामन से ज़िंदगी है वाबस्ता
उस से तुम नहीं डरते !
अन-कही से डरते हो
जो अभी नहीं आई उस घड़ी से डरते हो
उस घड़ी की आमद की आगही से डरते हो !
पहले भी तो गुज़रे है
दूर ना-रसाई के बे-रिया ख़ुदाई के
फिर भी ये समझते हो हेच आरज़ू-मंदी
ये शब-ए-जुबाँ-बंदी है रह-ए-ख़ुदा-वंदी !
तुम मगर ये क्या जानो
लब अगर नहीं हिलते हाथ जाग उठते हैं
हाथ जाग उठते हैं राह का निशां बन कर
नूर की ज़ुबाँ बन कर
हाथ बोल उठते हैं सुब्ह की अज़ाँ बनकर
रौशनी से डरते हो ?
रौशनी तो तुम भी हो रौशनी तो हम भी हैं
रौशनी से डरते हो !
शहर की फ़सीलों पर
देव का जो साया था पाक हो गया आख़िर
रात का लिबादा भी
चाक हो गया आख़िर ख़ाक हो गया आख़िर
अजि़्दहाम-ए-इंसान से फ़र्द की नवा आई
ज़ात की सदा आई
राह-ए-शौक़ में जैसे राह-रू का ख़ूँ लपके
इक नया जुनूँ लपके !
आदमी छलक उट्ठे
आदमी हँसे देखो हर फिर बसे देखो
तुम अभी से डरते हो ?