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जिंदा मांस की आवाज़ / रणजीत
Kavita Kosh से
बहुत अपराधों का आकर्षण तोड़ा
बहुत पापों से दामन बचा लिया
बहुत-सी तृष्णाएँ त्यागीं
बहुत-सी इच्छाओं को दबा दिया
किन्तु ज़िंदा मांस की इस प्यास को दफ़ना नहीं पाया
कि ज़िंदा मांस की आवाज़ को झुठला नहीं पाया।
बहुतों के अरमानों से खेला
बहुतों के फ़रमानों से खेला
धरा के ध्येयों को इनकारा
स्वर्ग के श्रेयों को ललकारा
किन्तु ज़िंदा मांस के आह्वान को ठुकरा नहीं पाया
कि ज़िंदा मांस की आवाज़ को झुठला नहीं पाया।
अपने पथ पर हरदम बेरोक बढ़ा
राह-रोक-ईश्वर से भी बेखौफ़ लड़ा
हथकड़ियाँ तोड़ीं रस्म-रिवाजों की
ज़ंज़ीरें काटीं राज्य-समाजों की
किन्तु ज़िंदा मांस की गलबाँह से बच आ नहीं पाया
कि ज़िंदा मांस की आवाज़ को झुठला नहीं पाया।