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जिए जाते थे लोग / निश्तर ख़ानक़ाही
Kavita Kosh से
आप-अपनी ज़ांत के शोलों में जल जाते थे लोग
क्या अंधेरा था कि जिससे रोशनी पाते थे लोग
ग़ुफ़्तगू में ढ़ूँढ़ते थे, कान ज़ज़्बों का सुराग
और जो कुछ दिल में आता था, सो कह जाते थे लोग
रूप का मंदिर भी देखा, हर दरीचा बंद था
नीम-उर्या* जिस्म दीवारों पे लटकाते थे लोग
तूने ए पतझड़ के मौसम! वो समाँ देखा नहीं
घर को जब क़ागज के गुल-बूरे लिए जाते थे लोग
ख़ुदफ़रेबी* का धुँधलका की ग़नीमत था कि जब
दिल को बे-बुनियाद उम्मीदों से बहलाते थे लोग
और बढ़ जाती थी बाज़ारों की रौनक़ दिन ढले
घर के सन्नाटे से घबराकर निकल आते थे लोग
काश! इक पल अपनी मर्ज़ी से भी जीकर देखते
जाने किस-किस के इशारों पर जिए जाते थे लोग
1- नीम-उर्या- अर्द्ध नग्न
2- ख़ुदफ़रेबी- खुद को भ्रमित रखना