जितनी क़समें खाई हमने रौशनी के सामने / हस्तीमल 'हस्ती'

जितनी क़समें खाई हमने रौशनी के सामने ।
उससे ज़्यादा तोड़ डालीं तीरगी के सामने ।

रख दिया करती है तोहफ़े यूँ भी ये क़िस्मत कभी,
घर किसी के सामने तो दर किसी के सामने ।

अपनी इस फ़ितरत को मैं ख़ुद भी समझ पाया नहीं,
जिससे हारा, जा रहा हूँ फिर उसी के सामने ।

दिक़्क़तें तो ठहरीं अपनी मरज़ी की मालिक मियाँ,
आज घर के सामने हैं कल गली के सामने ।

ग़ैर के दुख-दर्द से जिसको कोई निस्बत नहीं,
याचना करता दिखेगा कल ख़ुशी के सामने ।

वक़्ते-रुख़सत तैरती है जो किसी की आँख में,
सारे सावन पानी भरते उस नमी के सामने ।

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