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जितनी देर में बनती है एक उम्मीद / शहंशाह आलम

जितनी देर में बनती है एक उम्मीद
पृथ्वी पर फ़रिश्ते नहीं हत्यारे उतरते हैं
हमारी पसंद की मिट्टी के मकान तोड़ दिए जाते हैं
हमारे ओहदे और ख़िताब ले जाता है कोई दूसरा
पतंगें कट-कटकर गिरती हैं धड़धड़ धड़धड़ धड़धड़
छिन जाता है हमसे हरी घास पर बैठना
मारे जाते हैं मासूम बच्चे इस नाबीना शहर में

जितनी देर में बनती है एक उम्मीद
काट लिए जाते हैं बहुत सारे दरख़्त
डूब जाती हैं कितनी-कितनी नावें
शिकार कर लिए जाते हैं चीतल
और प्रवासी पक्षी और बाघ

हमसे हमारी रुत और बहारें और करोड़ों बरस
हमसे हमारे सारे अचम्भे चोरी चले जाते हैं

जितनी देर में बनती है एक उम्मीद
ढा दिये जाते हैं ढांचे कई
तोड़ लिया जाता है सबसे सुंदर फूल
जला दी जाती हैं दुकानें
बरहना लाशें मिलती हैं गली-कूचों में
कबड्डी खेलना भूल जाते हैं लड़के-लड़कियां

जितनी देर में बनती है एक उम्मीद
आग लेकर भाग चुका होता है धनछूहा
दिल बुझ चुका होता है यारों का
फट चुकी होती है किसी की नई क़मीज़
किसी का बटुआ मार ले जाता है बटमार
चोरी चला जाता है पिता का छाता
दुःस्वप्न छेंक लेता है हमको
दसों दिशाओं से आकर
सभागार का सन्नाटा काटने दौड़ता है सबको

जितनी देर में बनती है एक उम्मीद
शादी के इंतज़ार में बैठी नम्मू उस्ताद की बेटी
आत्महत्या कर चुकी होती है
हांफता-कांपता कबीर-सा दिखने वाला वह आदमी
कबीरवाणी गा-गाकर अपनी आवाज़ें खो चुका होता है
जबकि महानागरिक हमारी उम्मीदों को नष्ट होते देख
खिलखिला-खिलखिलाकर हंसता है हा हा हा।