जितनी बार / अज्ञेय
जितनी बार मैं नभ में कोई तारा टूट कर गिरता हुआ देखती हूँ, उतनी बार मेरा अन्तर किसी पूर्व निर्देश-हीन प्रार्थना से कह उठता है : 'मुझे, उस से अनन्त संयोग प्राप्त हो जाए!'
कहते हैं कि तारे के टूटने और लुप्त हो जाने के अन्तरावकाश में उत्पन्न और व्यक्त अभिलाषा पूर्ण हो जाती है।
पर हमारा मिलन तो पहले ही अभिन्न है, तुम और मैं तो पहले ही अनन्त संयोग में एक हो कर खो चुके हैं; तब यह शकुन कैसे फलित होगा, तब यह अभिलाषा कैसे पूर्ण होगी-जो अलग ही नहीं है वे एक कैसे होंगे?
पर फिर इस अभिलाषा का उद्भव क्यों होता है?
मैं नहीं जानती! मैं नहीं जानती!
केवल, जितनी बार मैं नभ में कोई तारा टूट कर गिरता हुआ देखती हूँ उतनी ही बार मेरा अन्तर किसी पूर्वनिर्देश-हीन प्रार्थना से कह उठता है, 'मुझे उस से अनन्त संयोग प्राप्त हो जाए!'