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जितनी सुलझाऊँ पहेली ये उलझती क्यूँ है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'

जितनी सुलझाऊँ पहेली ये उलझती क्यूँ है।
बस्ती बस-बस के मिरे दिल की उजड़ती क्यूँ है।

अपने वादे से मुकरता है कोई दोस्त अगर,
एक ठडी-सी लहर दिल में उतरती क्यूँ है।

ख्वाहिशंे दिल की सभी मैंने लुटा दीं जिस पर,
वो खु़शी मुझसे लिपटने में झिझकती क्यूँ है।

सर झुके अपना गुनाहों की मुआफी के लिये,
हर बशर करता शबो रोज़ वह ग़लती क्यूँ है।

जनता हूँ कि गया टूट है दिल का रिश्ता,
फिर भी मिलने को मेरी रूह तड़पती क्यूँ है।

क्यूँ नहीं आप दिये हमको जलाने देते,
रौशनी आपकी नजरों को खटकती क्यूँ है।

सख्त अफ़सोस है ‘विश्वास’, ये मौसम की तरह,
जिन्दगी रोज़ नये रंग बदलती क्यूँ है।