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जिधर देखो उधर हर राह में / विनय सिद्धार्थ
Kavita Kosh से
जिधर देखो उधर हर राह में अब लाश जलती है।
यहाँ हर शब्द घायल है कलम भी खूँ उगलती है।
यहाँ मंदिर और मस्जिद में इन्सानियत परेशां है,
मगर वहशत है कि दिल में यहाँ बेख़ौफ़ पलती है।
कब और किसकी कहाँ पर लाश गिर जाए,
पुलिस की गोलियाँ भी तो यहाँ बेफिक्र चलती हैं।
ज़माना है ये पूरा गिरगिटी अन्दाज़ में एकदम,
चलो देखें कहाँ किस रंग में सूरत बदलती है।
बहुत मुश्किल है "विनय" किसको क्या कहा जाये,
यहाँ तो प्यास भी लोगों की बस खूँ से ही बुझती है।