भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिनके जीवन में युद्ध नहीं / वैभव भारतीय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिनके जीवन में युद्ध नहीं
उन-सा हतभागी क्या होगा
जो चुक जाते हैं बिस्तर पर
उन-सा अपराधी क्या होगा।

जीवन इक रण है अंतहीन
हर क्षण बस डटकर लड़ना है
घुन चाल गये शहतीरों से
पत्थर को छलनी करना है।

हे शांति-शांति रटने वालों!
क्या जीतेजी पा सकते हो?
कितने तप श्रेष्ठी खर्च हुए
इसका मापन कर सकते हो?

युद्ध तपस्वी भी करता है
तत्व अलग होने से क्या
कोई युद्धों से बच पाया है?
हथियार अलग होने से क्या।

उनको भी तो है शान्ति नहीं
बस आँख मूँद कर बैठे हैं
है आँख खोलने की देरी
दुश्मन भिड़ने को बैठे हैं।

मूँदी आँखों का युद्ध अलग
जो सबसे भीषण होता है
ख़ुद से लड़कर विजयी होना
ये सबसे दुष्कर होता है।

जब तक शरीर में श्वास रही
हमको बस लड़ना पड़ता है
इसे युद्ध कहें या मज़दूरी
हर दिन ही करना पड़ता है।

ये भी तो एक यथार्थ रहा
मौतें बिस्तर पर होती हैं
जो लड़ बैठा कुछ कर बैठा
बाधाएँ रोना रोती हैं।

जब पुरुष हिरण्यगर्भ वाला
रचना करने बैठा होगा
कुछ रचने से पहले वह भी
हर पंगत पर ठिठका होगा।

जब कुछ नहीं था सृष्टि में
बस घुप्प अँधेरा था पसरा
अनहद की हद के लिए पुरुष
भी युद्धों में संलग्न रहा।