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जिनको नहीं मिली है मसर्रत बहार में / रंजना वर्मा
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जिनको नहीं मिली है मसर्रत बहार में
वो ढूंढ़ते हैं आज भी खुशियाँ बज़ार में
आँखेँ थकी हुई हैं राह देख तुम्हारी
पत्थर-सी हूँ बनी मैं तेरे इंतज़ार में
इतरा रहे हो किसलिये जो जीत है मिली
है हार तुम्हारी भी तो इस मेरी हार में
इन मुफ़लिसों की भीड़ में है कौन न भूखा
अब तो लगे हुए हैं सभी इस कतार में
अपनी तो कोई चीज़ न महफूज़ अब रही
इज़्ज़त भी लोग माँग रहे हैं उधार में
आंखें बगैर ख़्वाब फ़िज़ा में उदासियाँ
बेइंतहा तड़प है दिले बेक़रार में
जब से गये हो तुम है गया चैन भी मेरा
हो काश आशियाना मेरा कू ए यार में