भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिनगी के जंजाल / महेंद्र 'मधुप'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ए जग में जंजाल बहुत हए,
घर में मेहरारू के डांट परइअ,
मालिक बाहर आँख गुरेरइअ,
घर के सभे काम गेम-गेम करइले,
कवितो हम लिखइले,
सुबह-साम मेहरारू
फटकार लगबइअ,
आ कहइअ –
कथी ला सूतल हती बिछौना पर,
बिहार हो गेलई,
चिरइओ स। जाग रेलई,
बान्हल गइआ खूँटा पर चिकरइअ,
सुबहे उठ के असनान करू।
ई सुन के देह में आग लग जाइअ,
मन बिगरइअ, आ खीसो होइअ,
बाकि उनकर प्रेम देख के,
उनका प्रति हमरो मन में
मलाल बहुत हए,
ए जग में जंजाल बहुत हए।